हम सभी को किसी न किसी प्रकार का दुःख है अर्थात कहा जाये तो जिसने भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं की है वह निश्चित ही किसी न किसी प्रकार के दुःख से घिरा ही होता है। पृथ्वी या अन्य ग्रहों पर जितने भी प्राणी हैं उन सबकी मनोकामना होती है कि वे दुःख से मुक्ति हों और सुख की प्राप्ति हो। भौतिक सुख सुविधाएँ मिल जाने मात्र से सुख की प्राप्ति होना संभव नहीं है। भौतिक सुख सुविधाओं से शारीरिक सुख की प्राप्ति तो हो सकती है मगर मानसिक सुख की प्राप्ति करना कठिन है। अगर ऐसा होता तो अमीर लोग सुख को कब से प्राप्त कर लेते और गरीब इसके लिए तरसते रहते। हर दिन विश्व में अनगिनत युवा-युवती एवं वयस्क आत्महत्या कर लेते हैं,इनमें से अधिकांश मानसिक दुखों से पीड़ित होकर ही ऐसा कदम उठाते हैं। दुखों से मुक्त होने के लिए पहले हमें दुखों को समझना होगा। दुःख कैसे और क्यों उत्पन्न होते हैं उन्हें समझना होगा।
उदाहरण के तौर पर अगर हम किसी बीमारी से ग्रसित हैं और उसका निदान चाहते हैं तो एक कुशल चिकित्सक से परामर्श लेने की आवश्यकता होती है। चिकित्सक हमारी बीमारी के श्रोत को समझने के लिए विभिन्न प्रकार की जाँचें करने के उपरांत बीमारी को ठीक करने के लिए उचित औषधि देता अथवा उपचार करता है। जिस प्रकार से चिकित्सक बिना हमारी बीमारी को समझे किसी भी प्रकार की औषधि नहीं दे सकता है उसी प्रकार दुखों के कारणों (हेतुओं) को जाने बगैर हम दुखों से मुक्ति नहीं पा सकते हैं।
हालाँकि हम सभी दुखों को दिन रात भोगते हैं मगर उनको पहचानने की कोशिश नहीं करते हैं कि आखिर यह दुःख क्यों और कैसे उत्पन्न हुआ है। दुःख के मूल को गहराई से जानने की कोशिश नहीं करते हैं। हमें अपने दुखों को जानना चाहिए,परखना चाहिए। इस सन्दर्भ में तथागत बुद्ध ने कहा है कि-दुःख को जानो༼སྡུག་བསྔལ་ཤེས་པར་བྱ།།༽ यहाँ मैं दुखों के प्रकारों को संक्षिप्त में लिखने का प्रयास करूँगा जिससे कि दुखों को समझने में कुछ सहयोग प्राप्त हो सके।
दुखों के प्रमुख प्रकार-प्रमुख रूप से दुःख तीन प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित हैं।
- दुःख का दुःख
- परिवर्तित दुःख
- संस्कार दुःख
१-दुःख का दुःख
सभी स्कंध (पाँचों स्कंध-रूप,वेदना,संज्ञा,संस्कार,विज्ञान) दुःख के समान हैं। इस शरीर में छोटे बड़े अनगिनत दुःख हैं। एक पल में कितने दुःख भोग रहे होते हैं हमें उनका एहसास नहीं हो पाता है। एहसास न होने का कारण हम दुःख को दुःख के रूप में स्वीकार करना ही नहीं चाहते हैं। हम सबकी आदत होती है कि अच्छा ही सुने,देखें या महसूस करें। सर्दी, गर्मी, भूख,प्यास आदि के दुःख मनुष्य,जानवर आदि महसूस करते हैं और इनसे बचने के लिए प्रयास करते हैं। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अकुशल कर्म भी कर जाते हैं।
इस पहले प्रकार के दुःख को दुर्गति और सुगति के प्राणियों के आधार पर बाँट के समझ सकते हैं।
दुर्गति प्राप्त प्राणियों के दुःख- इस गति के प्राणियों में नरक,प्रेत और जानवर लोक के प्राणी आते हैं। नरक के बारे में अठारह प्रकार के नरकों का जिक्र किया है जिनमें आठ प्रकार अग्नितप्त नरक,आठ प्रकार के हिमाच्छादित नरक तथा दो अन्य प्रकार के नरकों को माना गया है। अलग-अलग परम्पराओं में इनकी संख्या को लेकर अपने-अपने तर्क और मत हैं। इसी प्रकार से प्रेतों में भी बहुत प्रकार हैं। यहाँ मैं नरकों और प्रेतों की व्याख्या किंचित भी करने की कोशिश नहीं करूँगा क्योंकि विषय से परे जाने की संभावना हो जाएगी।
जिन प्राणियों को हम प्रत्यक्ष रूप से अपनी आँखों से देख सकते हैं उनमें स्थलीय एवं जलीय प्राणी हैं। इन प्राणियों में भी विभेद किया जाये तो मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े मकोड़े आदि शामिल हैं जिनकी संख्या नगण्य है ।
जानवरों के दुःख-जानवरों में अनेक पैरों वाले, चार पैरों वाले, दो पैरों वाले तथा विना पैरों वाले जानवर होते हैं। ये जल, थल, जंगलों,मरुस्थलों आदि स्थानों पर रहते हैं। इनके दुखों को देखें तो नगण्य हैं। एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। जैसे खच्चरों एवं गधों पर अत्यधिक भोझ ढ़ोने का दुःख, बैलों को खेत में जोतने का दुःख, कुछ जानवरों को उनकी हत्या होने का दुःख,आपस में एक दूसरे की हत्या का दुःख,सर्दी-गर्मी से बचने हेतु शरण स्थान न मिलने का दुःख आदि।
मनुष्य खच्चरों,बैलों आदि को अपने व्यावसायिक कार्यों में उपयोग हेतु चाबुक से, डंडे एवं लोहे की जंजीरों से पीटता है। उनके नाक में छेद कर लोहे या अन्य रस्सी को डाल दिया जाता है जिससे वे इधर उधर भाग ही न सकें और न चाहकर भी मनुष्यों के अधीन होकर कार्य को मजबूरी में करते रहें। हाथी को लोहे के अंकुश से हांका जाता है, उसे कितना कष्ट होता होगा हम सब समझ सकते हैं। जब हमारे पैरों में छोटा सा कांटा चुभ जाता है तब दर्द असहनीय हो जाता है मगर जानवरों को तो हर रोज इस प्रकार के दुखों से गुजरना पड़ता है तथा कोई उनकी व्यथा को सुनने वाला नहीं होता है।
हिरन,बकरी,बकरा,भेड़ आदि जानवरों के मुलायम बाल,मांस, हड्डी, चमड़े, खून आदि को प्राप्त करने के लिए हत्या की जाती है। हाथियों के दांतों से आभूषण बनाने हेतु तस्कर उनकी अकाल हत्या करते हैं। इस प्रकार की व्यथा लगभग हर जानवर के साथ होती है। आज नहीं तो कल मनुष्य अपने स्वार्थ हेतु उनकी हत्या करता ही है।
मुर्गे,मुर्गियों का क्या हश्र होता है हम सब हर रोज अपने आसपास गली,मोहल्ले, कस्बों एवं शहरों में मांस की दुकानों पर देखते हैं और बिना किसी दर्द को समझे निकल जाते हैं। उनको पकड़कर उबलते पानी में डाल दिया जाता, पंख सहित खाल नोंच ली जाती है,गर्दन को काटकर डिब्बों में मरने तक का इतजार किया जाता है फिर छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर बेचा जाता है तथा मनुष्यों की थाली में भोजन के रूप में प्रस्तुत होता है। अगर इन पशु पक्षियों के दुःख दर्द को समझा जा सके तो शायद कोई उनकी हत्या न करे।
समुद्र, तालाब, नदी एवं नालों में रहने वाली मछलियों की भी यही दुर्दशा होती है। बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा जाती हैं तथा मछुआरों द्वारा एक साथ करोड़ों अरबों की संख्या में पकड़कर विभिन्न माध्यमों से मनुष्यों तक पहुँचाया जाता है जहाँ इन मछलियों को तलके, कच्चा एवं भून के खाया जाता है। इन जलीय जीवों के भी अपने दुःख हैं,अनंत प्रकार के दुःख हैं।
सुगति प्राप्त प्राणियों के दुःख-
- मनुष्यों के दुःख
- अशुरों के दुःख
- देवताओं के दुःख
मनुष्यों के दुःख- मनुष्यों के प्रमुखतः 8 प्रकार के दुःख बताये गए हैं। गर्भ प्रवेश सूत्र से
- जन्म भी दुःख है
- बुढ़ापा भी दुःख है
- व्याधि भी दुःख है
- मृत्यु भी दुःख है
- प्रिय वस्तुयों से वियोग भी दुःख है
- अप्रिय वस्तुयों के संयोग से भी दुःख है
- अप्राप्ति भी दुःख है
- प्राप्त की रक्षा न कर पाना भी दुःख है
जन्म भी दुःख है-कुछ लोग माँ के गर्भ में अड़तीस सप्ताह, कुछ आठ माह, कुछ नौ महीने तथा कुछ दस महीने तक रहते हैं। पहले सप्ताह में माँ के गर्भ में ताम्बे निर्मित तपती भट्टी के समान गर्मी का दुःख महसूस होता है। इसे कलाला कहा जाता है। इसका आकार चावल के मांड या दही की हल्की परत के समान होता है। दूसरे सप्ताह में इसका आकार जमे हुए दही या जमी हुई मक्खन के समान हो जाता है। तीसरे सप्ताहे में इसका आकार एक पिण्ड के समान हो जाता है तथा लोहे की चम्मच जैसा दिखता है। सातवें सप्ताह में हाथ और पैरों का विकास होता है। ग्यारहवें सप्ताह में नौ द्वार (ऑंखें, कान, नाक, मुख, मूत्रमार्ग एवं मलद्वार) उत्पन्न होते हैं। इस समय जिस प्रकार से शरीर में घाव में ऊँगली से छेड़छाड़ करते हैं के जैसा दुःख उत्पन्न होता है।
इस दौरान अगर माँ प्रतिकूल ठंडा भोजन या पानी ग्रहण करती है तो गर्भ में जमी हुई ठंडी बर्फ के जैसा दुःख उत्पन्न होता है। इसी प्रकार से अधिक गर्म, खट्टा एवं नमकीन भोजन करने से भी अत्यधिक दुःख की प्राप्ति होती है। अगर माँ अधिक भोजन कर ले तो पहाड़ के नीचे दबे होने के समान दुःख का आभास होता है। यदि माँ तेज चले या उचल कूद करे तो ऐसा लगता है जैसे कि पहाड़ ऊपर से होकर गुजर रहा है। अगर इस दौरान माँ-बाप संभोग करते हैं तो रक्त तप्त लोहे को शरीर के ऊपर डालने के समान दुःख की अनुभूति होती है। अतः ऐसे समय में संभोग से बचना चाहिए जिससे कि गर्भ में बच्चे को कम दुःख सहन करना पड़े।
सैतीसवें सप्ताहे में गर्भ के अन्दर होने का एहसास, अशुचि का एहसास, दुर्गन्ध का एहसास, अंधकार का एहसास, कैद का एहसास तथा अत्यधिक दुखी होकर गर्भ से बाहर आने की इच्छा होती है। अड़तीसवें सप्ताहमें མེ་ཏོག་སྡུད་པ་ཞེས་བྱ་བའི་རླུང། की उत्पत्ति होती है। यह वायु गर्भ में उपस्थित बच्चे को गर्भ द्वार तक भेजती है तब ऐसे दुःख का एहसास होता है जैसे कि लोहे की गाड़ी में खराबी आ गई हो और वह आगे ही न चल रही हो।
इस गर्भ काल में तप्त ताम्र जैसी गर्मी से एक प्रकार से भुन जाने का दुःख सहन करना पड़ता है। अट्ठाईस विभिन्न प्रकार की वायु स्पर्श करती हैं। कलाला चरण से लेकर पूर्ण शरीर विकसित हो जाता है।
इसके बाद गर्भ से सिर के बल हाथ आगे करके निकलना होता है। इस समय लोहे के तार से बाहर खींचा जा रहा हो के समान दुःख का अनुभव होता है। कुछ लोगों की गर्भ में ही मृत्यु हो जाती है तथा कुछ लोगों की माँ के साथ साथ मृत्यु हो जाती है। जन्म के दौरान जमीन पर आते वक्त अत्यधिक पीड़ा होती है। जब शरीर को साफ करने हेतु पोंछा जाता है तब ऐसा लगता है कि मानो खाल ही खींच ली जा रही हो। एक नए वातावरण में अवतरण हो जाता है जहाँ फिर से दुखों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त भी गर्भ के तमाम दुःख होते हैं।
वृद्धावस्था के दुःख
वृद्धावस्था के अनेक दुःख हैं लेकिन संक्षेप में प्रमुख रूप से दस प्रकार के बताये गए हैं।
- काय के परिपक्व होने का दुःख-युवा अवस्था की तरह शरीर सीधा व सुदृढ़ न रहकर झुक जाता है तथा छड़ी आदि के सहारे चलना पड़ता है।
- केशों के परिपक्व होने का दुःख-जिस प्रकारयुवावस्था में घने एवं काले केश होते हैं न रहकर सफ़ेद हो जाते हैं, केशों का गिरना प्रारंभ हो जाता है तथा अंत में गंजे हो जाते हैं।
- त्वचा का परिपक्व होना-युवावस्था में त्वचा पतली एवं मुलायम होती है जो वृद्धावस्था में धीरे-धीरे कठोर एवं मोटी हो जाती है। चेहरे पर झुर्रियां स्पष्ट दिखने लगती हैं।
- रंग का परिपक्व होना- युवावस्था में काय का रंग चमकदार एवं खिले हुए कमल की भांति होता है मगर वृद्धावस्था में मुरझाये हुए फूल की तरह नीरस हो जाता है।
- बल में कमी आ जाना- युवावस्था में हम शारीरक एवं मानसिक बल से ओतप्रोत होते हैं तथा किसी भी प्रकार की थकावट का एहसास नहीं होता है मगर वृद्धावस्था में शारीरिक बल में कमी होने के कारण मानसिक बल में कमी आ जाती है,उत्साह कम हो जाता है तथा इन्द्रियाँ भी कमजोर होती चली जाती हैं।
- ख्याति में कमी आना- युवावस्था में अन्य लोगों द्वारा सम्मान किया जाता है, आपके सम्मान में अपने स्थान से उठ खड़े होकर सम्मान करते हैं ,प्रशंसा करते हैं। वृद्धावस्था लोग सम्मान करना कम कर देते हैं। कभी-कभी तो अपने खुद के बच्चों भी सम्मान नहीं करते हैं तो ऐसी स्थिति में मन में बहुत पीड़ा होती है और लाचार होकर इस सभी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता हैं।
- पुण्यों का पूर्ण होना-युवा अवस्था में खाने पीने की क्षमता वृद्धावस्था में घटकर कम हो जाती है, भोजन आदि स्वादिष्ट नहीं लगता तथा कुछ भी खाने पीने का मन नहीं करता है।
- बीमारियों के द्वारा घेर लेना-सबसे बड़ी बीमारी बुढ़ापे की बीमारी है। वृद्धावस्था में इस बीमारी द्वारा घेर लिया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य बीमारियों के द्वारा भी घेर लिया जाता है। अनगिनत दिनों तक अस्पतालों में पड़े रहना पड़ता है। न तो मन पसंद का खा सकते हैं और न ही पी सकते हैं। विस्तर पर पड़े-पड़े ही मल-मूत्र को त्यागना पड़ता है, स्वास लेने के लिए भी कृत्रिम उपकरणों का उपयोग करना पड़ता है।
- बुद्धि का कार्य न करना- बोली हुई बात तथा अन्य कार्यों को तुरंत भूल जाते हैं। बार-बार गलती कर बैठते हैं तथा भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि उचित एवं अनुचित क्या है। आदत में चिड़चिड़ापन आ जाता है और बात-बात पर क्रोधित होने लगते हैं।
- जीवन का पूर्ण होना-इस अवस्था मेंस्वास छोटी हो जाती है, आवाज भर्रायी हुई हो जाती है तथा सभी स्कंध अंत के नजदीक पहुँच जाते हैं। पाँचों तंत्व विघटित हो जाते हैं तथा मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
बीमारी के समय के दुःख- बीमारी के समय के दुःख भी अनेक होते हैं लेकिन संक्षेप में सात प्रकार के प्रमुख रूप से हैं।
- अत्यधिक दर्द होने का दुःख
- अकुशल शल्य क्रिया(चीर-फाड़) का दुःख
- तप्त औषधियों को खाने का दुःख
- खाने पीने का मन होने का दुःख
- वैद्य को न पहिचान पाने का दुःख
- वस्तुयों के समाप्त होने का दुःख
- मृत्यु के संदेह का दुःख
मृत्यु के दुःख-རྒྱལ་པོ་ལ་གདམས་པའི་མདོ་ལས། महाराज! मृत्यु को प्राप्त हो रहे व्यक्ति के दुःख इस प्रकार से होते हैं। घमंड से मुक्त हो जाता है। किसी की शरण नहीं रहती है। कोई नाथ नहीं रहता। रिस्तेदार भी साथ नहीं होते। बीमारियों के द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। मुख सूखता है। चेहरे का रंग बदल जाता है। हाथ पैर कम्पन करने लगते हैं। कोई कार्य नहीं होता। लार, नाक, पेशाब एवं उलटी शरीर पर ही गिरती है। आवाज लड़खड़ा जाती है। चिकित्सक भी जबाब दे देते हैं। चारपाई पर पड़ जाते हैं। यमराज का भय उत्पन्न हो जाता है। स्वांस टूटने लगती है। मुख और नाक खुले रह जाते हैं। इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। अन्य लोक में प्रवेश इत्यादि दुःख सहन करने पड़ते हैं।
उक्त विचार विभिन्न सूत्र एवं शास्त्रों के आधार पर लिखे हैं।त्रुटि होना संभव है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है,क्रमश: जारी रखें
thank you
बहूत ही सटिक और सरल शब्दों मे लिखा है लेख आपका बहूत बहूत धन्यवाद
dhanywad ji
Apne bhut hi acha se likha he
धन्यवाद जी
कैलाश जी, लेख सरल शब्दों में बहुत ही सटीक है ।आपको बधाई, ऐसे लेख के लिए व धन्यवाद
धन्यवाद जी
उत्तम लेख महोदय!
महोदय, अति उत्तम लेख ।
धन्यवाद
Bahut acha lekh hai sir,
Thank you
Very informative, lucid and mind-touching writing. Kudos! Expecting writing on 8 noble paths also. I will upload this article to our organisation’s WhatsApp group.
Thank you, sir and I will try to write on o noble paths.